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________________ - तत्त्वोपनिषद् - मौनमपण्डितानामिति। विद्वदग्रे तत्प्रकाशनमिति महद्दुःसाहसम्। असह्यं चैतत्। तथापि तत्प्रकाशितानां पुण्यबलतो मुग्धमान्यता । प्रियाविचारितरमणीयता हि मुग्धस्वभावः । ततश्च तन्मतविस्तृतिर्विचाराक्षमविचाराणां (२) जो शिक्षित न होते हुए भी अपने आप को पंडित मान लेता है अशिक्षितपण्डित। = (३) जो क्रिया शिक्षित नही होती है जैसे कि श्वासोच्छ्वास आदि, वो क्रिया है अशिक्षित, ऐसी क्रियाओं में ही जो पण्डित है अशिक्षितपण्डित। (४) जो अशिक्षित है, मगर पुण्य के बल पर पण्डित ऐसी कीर्ति उसे मिली है, इस लिये उसे निक्षेपसिद्धान्त के अनुसार नाम- पंडित कहा जा सकता है, वो अशिक्षितपण्डित। इन अर्थों में कोइ विरोध नहीं है। दिवाकरजी कहना चाहते है, कि ऐसा अशिक्षित पंडित जन अपनी बुद्धि से जो कहना चाहे वो ज्यादातर उटपटांग होगा या तो अनर्थकर होगा, कम से कम निरर्थक तो होगा ही । ऐसी व्यक्ति अपने सूझाव पेश ना करे यह ही उचित है। कहा भी है मौन अपण्डितों का विभूषण है। मगर जब वो अपने दिव्य (?) विचार विद्वानों के आगे पेश करने जाता है, तब तो हद हो जाती है। यह मिथ्याभिमान की एक सीमा है, एक दुःसाहस है, विद्वानों की बुद्धिमत्ता को एक चुनौती है, या उनकी उपेक्षा या उपहास है। जीते जी किसी को कोई कह दे कि- 'आपकी मृत्यु हो चूकी है' ऐसी यह असह्य बात है, तद्दन अविश्वसनीय बात है। ८ — = काश..... दुनिया में ऐसे अशिक्षितपंडितों को मौन कर सके ऐसा कोइ कानून नही बना। कोइ राजा, कोटवाल, सरकार या पुलिस उसकी धरपकड नही करती। इसी कारण, हज़ारों सालो में ऐसे कइ महानुभावों ने (?) अपने खयाल जगत के समक्ष रख दिये और पुण्य बल से थोडीबहुत मान्यता प्राप्त कर ली। कमी तो विद्वानों की ही होती है, मुग्ध जनों
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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