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________________ १४७ -कथु छे केजं च कामसुहं लोए, जं च दिव्वं महासुहं ॥ वीयरायसुहस्सेय-णंतभागंपि नग्धइ ॥ २४९ ॥ १८७ .. अर्थ- (लोए ) के० लोकमां (जं कामसुहं ) के जे काममुख छे. (च) के० अने (ज) के जे (दिव्वं महासुह) के० देव संबंधी महासुख छे. ते सुख ( वोयरायसुहस्सेय ) के० वीतराग एटले रोगद्वेष रहित एवा प्रभुना सुखना (गंतभागंपि ) के० अनंता भागने पण ( नग्धइ ) के० पामता नथो. अर्थात् प्रभुने जे सुख छे तेना अनंतमा भागर्नु सुख देवताने पण नथी ॥ २४९. ॥ ___इवे देवोओनी उत्पत्तिनुं स्थान कहे छे.. उववाओ देवीणं, कप्पदुगं जा परो सहस्सारा ॥ गमणागमणं नत्थी, अ अपरओ सुरागपि ॥२५॥ अर्थ- ( देवीणं ) के. देवीओ- ( उववाओ) के उपजवु ते ( कप्पदुगं जा) के० भुवनपतिथी आरंभी ईशान देवलोक सुधा छे. तेथी उपरना देवलोकमां देवीओर्नु उपजवू नयी. परन्तु देवताना उपभेग माटे सौधर्म तथा ईशान देवलोकनी अपरिगृहित। देवीओ अरना देवलोकमां जाय तो ( परो सहस्सारा ) के० उपरना सहस्रार देवलोक सुधी जाय. त्यांथीः उपरना देक्लोकमां (गमणागमणं नत्थी ) के० देवीओ- जवु आवq नथी. अने ( अच्चुअप. रओ सुराणंपि) के० अच्युत देवलोकथी उपर तो देवताओर्नु पण जवु आवQ नथी. तेमज नव गैरेयक तथा पांच अनुत्तर विमानवासो देवताओने नीचे आवानु प्रयोजन नथी. तीर्थकरना कल्याणिक अवसरे पण पोताना स्थानके रह्या छता नमस्कारादिक करे छे.
SR No.023435
Book TitleBruhat Sangrahani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrasuri
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1924
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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