SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८२ येषां नेच्छादिलेशोऽपि तेषां त्वेतत्समर्पणे ॥ स्फुटो महामृषावाद इत्याचार्याः प्रचक्षते ॥ ३७ ॥ उन्मार्गोत्थापनं बाढमसमंजसकारणे ॥ भावनीयमिदं तत्त्वं जानानैर्योगविंशिकाम् ||३८|| त्रिधा तत्सदनुष्ठानमादेयं शुद्धचेतसा ॥ ज्ञात्वा समयसद्भावं लोकसंज्ञां विहाय च ॥ ३९ ॥ अर्थ - पण जेने शुद्ध अनुष्ठानने विषे इच्छादि योगनो लेश पण नथी, तेवा अयोग्य नरने जे इच्छादि योग आपे तेने प्रगट मृषावादनुं पाप लागे छे, एवं पूर्वाचार्य कहे छे ॥ ३७ ॥ जे अति असमंजस कारण छे, तेने विषे उन्मार्ग स्थापन थाय छेः माटे योगविशिका ग्रंथना जाण पुरुषे ए तत्त्व चितवीने सद्अनुष्ठान कर, एटले जेम तेम करीये तो उन्मार्गनुं स्थापन थह जाय || ३८ || माटे शुद्ध चेतनाये, मन-वचन-कायाये करीने सदनुष्ठान सेववां, सिद्धांतना सद्भाव जाणी लोकसंज्ञा तजीने शुद्ध क्रिया करवी ।। ३९ ॥ इति सदनुष्ठानाधिकारः दशमः ॥
SR No.023433
Book TitleAdhyatmasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Veervijay
PublisherAdhyatmagyan Prasarak Mandal
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy