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________________ ७८ भोगरागाद् यथा यूनो बालक्रीडाऽखिला हिये ॥ धर्मयूनस्तथा धर्मरागेणासत्क्रियाहिये ॥ १९ ॥ चतुर्थ चरमावर्ते तस्माद्धर्मानुरागतः॥ __ अनुष्ठानं विनिर्दिष्टं बीजादिकमसंगतं ॥ २० ॥ अर्थ-जेम युवान् पुरुष भोगनो विलासी थाय छे ने बालक्रीडाथी लजवाय छे, तेम धर्म यौवनकालवंत पुरुष धर्मना रागे करी अशुद्ध क्रियाथी लजवाय छे ॥ १९॥ ते माटे ते धर्मना अनुरागथी चरम पुद्गल परावर्तेज तद्धेतु नामे चोथु अनुष्ठान कह्यु छे, पण बीजादिक जे समकित ते तो असंग के० अप्राप्त छे ॥ २०॥ बीजं चेह जनान् दृष्ट्वा शुद्धानुष्ठानकारिणः ॥ बहुमानप्रशंसाभ्यां चिकीर्षा शुद्धगोचरा ॥ २१ ॥ तस्या एवानुबंधश्चाकलंक कीर्त्यतेऽङ्करः ॥ तहेत्वन्वेषणा चित्रा स्कंधकल्पा च वर्णितां ॥२२॥ ___ अर्थः-इहां समकितरूप बीज तो तेवारे थाय के जेवारे शुद्ध क्रिया करता जीवोने देखीने बहुमान प्रशंसा करे, अने आगमविधिरागे पोते पण ज्ञाने शुद्ध विधिगोचर होय तेवारे समकित उपजे छे ॥ २१ ॥ ए तद्धेतुअनुष्ठाननो अनुबंध जे शुद्ध परिणमन ते कलंक रहित अंकुर कहिये, अने तद्धेतुअनुष्ठाननी खोल करवी ते नाना प्रकारनो स्कंध कहिये ॥ २२ ॥ प्रवृत्तिस्तेषु चित्रा च पत्रादिसदृशी मता ॥ ___ पुष्पं च गुरुयोगादिहेतुसंपत्तिलक्षणं ॥ २३ ॥ भावधर्मस्य संपत्तिर्या च सद्देशनादिना ॥ फलं तदत्र विज्ञेयं नियमान्मोक्षसाधकं ॥ २४ ॥
SR No.023433
Book TitleAdhyatmasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Veervijay
PublisherAdhyatmagyan Prasarak Mandal
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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