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________________ वैराग्य संभवाधिकार भवस्वरूपविज्ञानाद् द्वेषान्नैर्गुण्यदृष्टिजात् ।। तदिच्छोच्छेदरूपं द्राग् वैराग्यमुपजायते ॥ १ ॥ सिया विषयसौख्यस्य वैराग्यं वर्णयंति ये ॥ मतं न युज्यते तेषां यावदाप्रसिद्धितः ॥२॥ अर्थः-भवनुं स्वरूप जाण्या थकी, संसार उपर द्वेष थया थकी, संसारने निर्गुणपणे देखवा थकी शीघ्रपणे संसारना विच्छेदनो वैराग्य आत्माने विषे प्रगट थाय ॥ १॥ विषयसुखनी सिद्धि-निष्पत्ति-प्राप्ति तेवडे जे वैराग्यनुं वर्णन करे छे, तेनुं मत घटमान नथी, जिहां सुधी अर्थ के० द्रव्य छ, तिहां सुधी विषय छे, एवी प्रसिद्धि छे. '' अर्थसत्वे विषयसत्वं "। इति ॥२॥ अप्राप्तत्वभ्रमादुचैरवाप्तेष्वप्यनंतशः॥ कामभोगेषु मूढानां समीहा नोपशाम्यति ॥ ३॥ विषयः क्षीयते कामो नेंधैनरिव पावकः ॥ प्रत्युत प्रोल्लसच्छक्तिर्भूय एवोपवर्धते ॥४॥ अर्थ:-जे एम जाणे छे; जे हुँ कोइ काले संसारने विषे आव्योज नथी, जो अनंती वार विषय सेव्या छे, ते छतां आ विषय नवा पाम्यो, एवो भ्रम जेने उपजे छे, एवा जे कामभोगने विषे मुंझाइ रह्या छे, तेनी अभिलाषानो नाश थतोज नथी ॥३॥ जेम इंधनथी अग्नि घटे नहीं, पण उलटी वृद्धिज पामे, तेम विषय सेवतां कामभोग पण कदापि क्षय पामे नहीं, उलटी शक्ति उल्लास पामती जाय; वारंवार वधतीज जाए ॥ ४ ॥ सौम्यत्वमिव सिंहानां पन्नगानामिव क्षमा । विषयेष्ठ प्रवृत्तानां वैराग्यं खलु दुर्वचं ॥५॥
SR No.023433
Book TitleAdhyatmasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Veervijay
PublisherAdhyatmagyan Prasarak Mandal
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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