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________________ __ अर्थ-क्षणमा हसे, क्षणमा क्रीडा करे ( रमे ), क्षणमा खेद करे, क्षणमां बहु प्रकारे रडे, क्षणमा विलाप करे, क्षणमा अनेक प्रकारनो विवाद करे, क्षणमां नासी जाय, क्षणमां हर्षित थइ नाचवा मांडे इत्यादि उन्माद संसारने विषे देहधारी प्राणीयो करे छे, ते सर्व मोहराजाने आधीनथका करे छे ॥ २० ॥ अपूर्णा विद्येव प्रकटखलमैत्रीव कुनय प्रणालीवास्थाने विधववनितायौवनमिव ।। अनिष्णाते पत्यौ मृगदृश इव स्नेहलहरी भवक्रीडा ब्रीडा दहति हृदयं तात्त्विकदृशाम् ॥२१॥ ____ अर्थ-असंपूर्ण विद्या जेम पंडितने, तेमज खल माणसनी मित्राई, वली राजसभामां अन्यायनी प्रणालिका एटले अन्यायनो मार्ग, तथा विधवा स्त्रीनुं यौवन, वली मूर्ख भरतारनी आगल स्त्रीना स्नेहनी लहरी ते जेम खेदने पात्र थाय छे तेमज संसारनी क्रीडा जे लजामणी छे तेथी तत्वदर्शी प्राणी दुःख पामे छे ।। २१ ॥ प्रभाते संजाते भवति वितथा स्वापकलना, द्विचंद्रज्ञानं वा तिमिरविरहे निर्मलदृशां ॥ तथा मिथ्यारूपं स्फुरति विदिते तत्त्वविषये, भवोऽयं साधूनामुपरतविकल्पस्थिरधियां ॥२२॥ अर्थः-जेम प्रभात समय स्त्रमनी रचना निष्फल थइ जाय छे, जेम कोइनी आंखमां जाकल आवी होय तेहने आकाशमां बे चंद्रमा भासे, पण निर्मलदृष्टि थतां बे चंद्रमार्नु भ्रांतिज्ञान मटी जाय छे तेम संसारथी न्यारा रह्या एहवा जे स्थिर बुद्धि
SR No.023433
Book TitleAdhyatmasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Veervijay
PublisherAdhyatmagyan Prasarak Mandal
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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