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________________ विपाकादापाका हितकलशवत्तापबहुलात्, जनो यस्मिन्नस्मिन्कचिदपि सुखं हंत न भवे ||१८|| अर्थ - प्रथम प्रेम करतां दुःख छे, ते पछी तेने निश्चलपणे राखवाने पण घणुं दुःख छे; वली ते प्रेमपात्रनो विच्छेद थाय, मरण थाय अथवा प्रेम त्रुटे त्यारे सौथी वधारे दुःख उपजे, ने ते सहन करवाने छाती घणी कठण राखवी पडे. नींभाडाना पाकने विषे आरोपित कर्यो एवो जे घट तेना सरखी तापनी बहुलता छे एवो जे आ संसाररूप नींभाड़ो तिहां सुख तो कांह ज नथी; समग्र दुःखमय ज छे ॥ १८ ॥ मृगाक्षीदृग्बाणैरिह हि निहतं धर्म्मकटकं, विलिप्ताहृदेशा इह च बहुलैरागरुधिरैः ॥ भ्रमंस्यूर्ध्व क्रूरा व्यसनशतगृधाश्च तदियं महामोहक्षोणीरमणरणभूमिः खलु भवः ॥ १९ ॥ अर्थ-आ संसारने विषे धर्मराजाना कटकने तो मृगननीना दृष्टिरूपी चाणे हणी नाख्युं छे, रागदिशारूप रुधीवडे लेपाइ गया छे हृदयप्रदेश जेना ते उपर अनेक प्रकारना मनतन संबंधी कष्टरूपी गीधपक्षीयो भमी रह्या छे; एवो महामोहरूप क्षोणीरमण जे राजा तेनी रणभूमि समान आ संसार छे ॥१९॥ हसंति क्रीडति क्षणमय च खिद्यंति बहुधा, रुदंति ऋदंति क्षणमपि विवादं विदधते ॥ पलायंते मोदं दधति परिनृत्यंति विवशा भवे मोहोन्मादं कमपि तनुभाजः परिगताः ||२०||
SR No.023433
Book TitleAdhyatmasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Veervijay
PublisherAdhyatmagyan Prasarak Mandal
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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