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________________ १७३ शास्त्रना दंडथकी नास्तिकभावने अतिशयपणे हण्यो नथी तिहां सुधी नथी; पण नास्तिकभावे रहित जे ज्ञान ते मोटु छे ॥ ६ ॥ यत्र नार्कविधुतारकदीपज्योतिषां प्रसरतामवकाशः ॥ ध्यानभिन्नतमसामुदितात्मज्योतिषांतदपि भाति रहस्य अर्थ-जेनी आगल सूर्यन तेज, तथा चंद्रमा अने तारार्नु तेज, वली दीपकना तेजनो प्रकाश अल्प छे, एवं जे ध्यान तेणे करीने भेदाणो छे अज्ञानरूप अंधकार जे प्राणीनो एहवा मुदित आत्मावालानुं तेज ते गुप्तपणे पण आत्माने विषे शोभे छे ॥७॥ योजयत्यमितकालवियुक्तांप्रेयसी शमरतिं त्वरितं यत् ॥ ध्यानमित्रमिदमेव मतं नः किं परैर्जगति कृत्रिममित्रैः।८।। अर्थ-शमतारतिरूप स्त्रीनी साथे प्राणीने घणा कालथी वियोग हतो ते क्षणमा वियोग भांगीने संयोग मिलावे एहवो ध्यानरूप परममित्र छे, ते ध्यानमित्र अमारे प्रमाण छे, एम ध्यान करनार प्राणी बोले छे; माटे संसारमा कृत्रिम परमित्रथी शुं थाय ? ते कृत्रिम मित्रो करतां तो ध्यानमित्र घणो श्रेष्ठ छे ॥ ८ ॥ वारितस्मरबलातपचारे शीलशीतलसुगंधिनिवेशेः॥ उच्छ्रितप्रशमतल्पनिविष्टो ध्यानधाम्नि लभते सुखमात्मा ॥ ९॥ अर्थ:-हवे ध्यानने रंगमंदिरनी उपमा आपे छे. जिहां कामरूप ताप टल्यो छे, अने शीलरूप शीतल सुगंधी पसरी रही छे तेवी बेठकने विषे शमतारूप मोटी तलाइ छे, ते उपर आत्मा बेठो थको पूर्ण आनंद पामे छे एवं ध्यानरूप मंदिर छे. ॥ ९॥
SR No.023433
Book TitleAdhyatmasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Veervijay
PublisherAdhyatmagyan Prasarak Mandal
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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