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________________ १७२ अने संसारी जीव विषयमां लीन थका जे वेलाये जागे छे ते वेला ध्यानवाला मुनिराजने शयनरूप छे ॥ ३ ॥ संप्लुतोदक इवांधुजलानां सर्वतः सकलकर्मफलानां ॥ सिद्धिरस्ति खलु यत्र तदुच्चैर्ध्यानमेव परमार्थनिदानं ॥४ अर्थ:-जेम वपराया विनाना ( अवड कुवान ) पाणी डोहोलुं रहे छे. तेम जेमां सर्वथकी सकल कर्मना फलनी सिद्धि एहवो जे ध्यानरूप घट जे जलमां रमतो होय, ( पाणी वपगतुं होय ) त्यां जल निर्मल होय; माटे सकल क्रियाफलनी सिद्धि ध्यानथी छे, ध्यान ते परम अर्थY कारण छे ॥ ४ ॥ बध्यते न हि कषायसमुत्थैर्मानसर्न ततभूपनमद्भिः॥ अत्यनिष्टविषयैरपिदुःखैानवान्निभृतमात्मनि लीनः अर्थ-जे ध्यानवान् पुरुष ते कषायजनित मने करी बंधातो नथी तेहने जो राजानी श्रेणी आवी नमस्कार करे, तो पण तेनुं चित्त डोहोलाय नहीं; अने अनिष्ट विषयनी प्राप्तिनां दुःखे करी पण निश्चलपणु छोडे नहि, तेने आत्माने विषे लीन कहिये ॥५॥ स्पष्टदृष्टसुखसंभृतमिष्टं ___ ध्यानमस्तु शिवशर्मगरिष्टं ॥ नास्तिकस्तु निहतो यदि न ॥ स्यादेवमादिनयवाङ्मयदंडात् ॥६॥ अर्थ-प्रगट दीठं अने मोक्षसुखे भर्यु एवं जे ध्यान ते इष्ट छे, एटले मोक्षसुखथी पण ध्यान मोटुं छे, पण जिहां सुधी
SR No.023433
Book TitleAdhyatmasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Veervijay
PublisherAdhyatmagyan Prasarak Mandal
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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