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________________ तवमिन्दु . (189) ४७६ अमूर्तत्व, सर्ववेतृत्व, निरावरणत्व, आदि केवलज्ञानना स्वपर्याय छे अने ज्ञेय सर्व पदार्थोंछे ते केवलज्ञानना परपर्यायछे. (वि) ४७७ सामान्यतः श्रुतज्ञानना स्वपर्याय अने परपर्यायछे ते केवल ज्ञानना पर्यायतुल्य थाय. (वि.) ४७८ उपजतीबेला अन्तर्मुहूर्तमां जीव करे ते पर्याप्त अने ते पर्याप्ति पश्चात् जीवे त्यां सुधी रहे ते प्राण जाणवा. (र) ४७९ पहेला बीजा अने त्रीजा ए ऋण अनंताना स्वामी कोइ नथी. माटे ए ऋण अनंता शून्यछे. चोथा अनंतामां अभव्य जीव आव्या. पांचमा अनंता मध्यभांगे सम्यक्त्व पडवाइ जीव कह्या. तथा पडवाइथी अनंतगुणा अधिक अनंतसिद्ध पांचमा भंगमांछे, छठा अनंतामां कोइ नथी. सातमा अनंतामां पण कोइ नथी. ए. सर्व निगोदिया वनस्पतिकायना जीव आठमे अनंतेछे तेथी अनंतानंतगुणा अधिक पुगल परमाणुआछे. तेथी काल, तेथी सर्व आकाश प्रदेश तेथी केवलज्ञान दर्शनना पर्याय अनुक्रमे अधिक ओठमा अनन्तामां जाणवा. नवमा अनंतामण कोइ नथी. ( रत्न) ४८० केवलीने शुकललेश्यानो उदयछे ते योगद्वारे परिगमे. योगनुं परिणमन आदयिकभावे परिणमे लेश्याए एक समये शाता
SR No.023422
Book TitleTattvabindu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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