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________________ तवबिन्दुः (^) ७ सद्गुरुना उपदेशथी, तथा अभ्यासयी, तथा वैराग्यंथी जीव धर्मरत्न पामी शके. ८ सूत्राभ्यास, अर्थाभ्यास, वस्तुअभ्यास तथा अनुभवाभ्यास ए चार प्रकारनो अभ्यास करतां धर्मवस्तुनी प्राप्ति थाय. ९ हिंसाथी पाप थायछे, षट्कायने हणवाना परिणामथी वैर अने पाप ए वे प्राप्त थाय छे। अने ते पाप उदयमां आवे त्यारे अशाता, आकुलता, उद्वेगता, अस्थिरता उत्पन्न थायछे. १० दर्शनमोहनीय क्षयोपशमथी धर्म थाय छे, तथा चारित्रमोहनीयना उदयथी पुण्य पाप थाय छे, अविरतिनो उदय मंद थाय तथा क्षयोपशम थाय त्यारे विरतिनो उदय थाय. अने विरतिनो उदय थाय त्यारे षट्काय जीव उपर दयाना परिणाम उपजे. तेथी पुण्य थाय, अने अविरतिना तीव्र उदये पाप नीपजे, मां एटलुं विशेष के चारित्र मोहनीयनो उदय मंद होय त्यारे पुण्य, अने चारित्र मोहनीय उदय तीव्र होय त्यारे पाप नीपजे. अने दर्शनमोहनीयना क्षयोपशमथी धर्म होय. तथा तेना क्षायिक भावथी धर्म होय.
SR No.023422
Book TitleTattvabindu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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