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________________ भारत में सम्वतों की अधिक संख्या की उत्पत्ति के कारण... १६३ खगोल शास्त्र, ग्रहों व नक्षत्रों की गति का परीक्षण करने तथा उनके आधार पर पंचांग पद्धति को शोधित करने का इन संवतों में अभाव रहा । जिस संवत् के आरम्भकर्ता व बाद में उसके अनुयायियों ने गणना-पद्धति के शोधन पर बल दिया, वह थोड़ा स्थायी रहा, शेष लुप्त हो गये। जनता में भी इन संवतों के प्रति कोई आकर्षण उत्पन्न नहीं हुआ। क्षेत्रीय व धार्मिक संकीर्णता तथा रूढ़िवादिता ने भी संवतों को प्रचलन से लुप्त हो जाने में सहयोग दिया। एक क्षेत्र, प्रान्त अथवा राज्य के लोग दूसरे राज्य की, एक धर्म के लोग दूसरे धर्म की व रुढ़िवादी लोग किसी भी प्रगति की बात को सुनने, समझने व अपनाने के लिए किसी भी रूप में तैयार नहीं थे। भले ही अपनी प्रथा त्रुटिपूर्ण हो व दूसरे की, अच्छी हो, लेकिन दूसरे धर्म का नाम आते ही वह घृणास्पद बन जाती थी। अतः बहुत से संवत् वैज्ञानिक दृष्टि से उन्नत होते हुए भी तथा उनके आरम्भकर्ताओं द्वारा गणना-पद्धति का शोधन कर लिए जाने के बाद भी अधिक समय प्रचलन में न रह सके । अकबर द्वारा आरम्भ किये दीन-ए-इलाही संवत् को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। भारत में ऐसी कोई भाषा न रही जो देश भर में आम जनता का विचारमाध्यम बनती तथा एक स्थान के लोग दूसरी जगह के तथ्यों को परख पाते । यद्यपि संस्कृत भाषा थी जो पूरे राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती थी, लेकिन सदियों से शिक्षा के अभाव ने उसे जनसाधारण से दूर कर दिया व साहित्य की भाषा बना दिया । अत. अलग-अलग भाषा-भाषी क्षेत्रों में गणना की पथक पद्धतियों का आरम्भ हुआ । सीमित क्षेत्र व सीमित भाषा-भाषी लोगों में ही प्रचलित रहने के कारण ये पद्धतियां शीघ्र ही समाप्त भी हो गयीं। भारत में विदेशियों के आगमन ने जहां अनेक नये संवतों को जन्म दिया, वहीं प्रचलित अनेक संवतों को समूल नष्ट करने का भी प्रयास किया। ये अपने संवतों को चलाना चाहते थे, अतः राजकार्यो, दैनिक व्यवहार के कार्यों व सावं. जनिक सभाओं, गोष्ठियों व घोषणाओं में विदेशी संवत् प्रयोग किये जाने लगे, अनेक भारतीय संवतों को प्रचलन से बाहर कर दिया गया। इस अवस्था में मात्र वे ही संवत् जीवित रह पाये जिनकी छाप जनसाधारण पर बहुत गहरी थी, शेष धीरे-धीरे लुप्त हो गये । पहले यह कार्य मुसलमानों के आगमन के बाद हिज्रा संवत् ने किया, इसके बाद यही कार्य ईसाई संवत् ने भी किया। न केवल विदेशियों ने भारतीय संवतों व परम्पराओं का विनाश किया, वरन् स्वदेशी शासकों ने भी यही किया। एक प्रान्त के शासक ने दूसरे प्रान्त को जीत लेने पर वही व्यवहार किया लेने जो एक विदेशी शासक क रता
SR No.023417
Book TitleBharatiya Samvato Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAparna Sharma
PublisherS S Publishers
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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