________________
मूलगाथान.
ए वर्जयेत् उत्तरोत्तरं एताः दूष्याः विशेषेण वजिऊ उत्तरुत्तर, एए दोसाँ विसेसेण ॥११॥
शब्दार्थ- ( वेसा के०) पैशा श्रापीने जोगववा योग्य स्त्री (दासी के) काम करनारी स्त्री (इत्तर के) धन गृहण करवानी श्वाथी परपुरुषना संकेतस्थाने क्रीडा करवामाटे जनारी स्त्री (परंगणा के०) धन, रूप, सौजाग्य विगेरेने विषे शासक्त थयेली स्त्री अने (लिंगिणीण के०) व्रतधारी स्त्री ए सर्वे स्त्रीउनी ( सेवा के०) सेवा (उत्तरोत्तर के०) श्रधिक अधिक (वजिज के०) त्यजी देवी. कारण के, (एए के०) ए स्त्री (विसेसेण के०) विशेषे करीने (दोसा के०) दूषित करनारी बे. ॥११॥
विशेषार्थ- पैशा श्रापीने जोगववा योग्य स्त्री, काम करनार दासी, धन ग्रहण करवानी श्वाथी परपुरुषना संकेतस्थानके क्रीडा करवा जनारी स्त्री, परपुरुषना धन, रूप, सौजाग्य विगेरेने विषे आसक्त थयेली स्त्री ने व्रतधारी स्त्री ए सर्व स्त्रीउनी सेवा अधिक अधिक त्यजी देवी; कारण के, ए सर्वे स्त्री विशेषे दूषित करनारी . ॥ ११॥ हवे मुनिने श्रने गृहस्थने कुसंग त्यजी देवानो उपदेश कहे जे.
द्यूतकारपारदारिकनटविटप्रमुखैः सह कुमित्रः जूरपारेदारिअ-नडविडपमुदहिं सैद कुमित्तेहिं ॥ संगं वर्जयेत् सदा संगात् गुणाःअपि दोषा अपि संगं वजित संया, संगान गुणावि दोसावि॥१०॥
शब्दार्थ- (जूश्रार के०) जूगारी (पारदारिश्र के) परस्त्री गमन करनार (नड के०) नाटककरनार(विड के०) जार अथवा धूर्त (पमुहेहिं के०) ए विगेरे (कुमित्तेहिं सह के०) कुमित्रनी साथे (संगं के०) संगने (सया के०) निरंतर (वङिाऊ के०) त्यजी देवो. कारण के, (संगा के०) संगथी एटले सारा संगथी (गुणावि के०) गुण पण थाय ने श्रने खोटा संगथी (दोसावि के०) दोषो पण थाय . ॥ १२ ॥ विशेषार्थ- बुद्धिवान् माणसे जुगटु रमनार, परस्त्री गमन करनार,
५२