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________________ ( ३ ) आचार्यों के मत में संस्कृत ही प्रकृति है । प्राकृत के प्रसिद्ध वैयाकरण हेमचन्द्र अपने प्राकृत व्याकरण के आठवें अध्याय के प्रथम सूत्र में कहते हैं कि – 'प्रकृतिः संस्कृतम् । तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम् ।' अर्थात् मूल संस्कृत है और संस्कृत में जिसका उद्भव है अथवा जिसका प्रादुर्भाव संस्कृत से हुआ है उसे 'प्राकृत' कहते हैं । वररुचि ने प्राकृत का व्याकरण लिखते हुए प्राकृत प्रकाश में लिखा है कि 'शेषः संस्कृतात् ' ( वर०९।१८) अर्थात् बताये हुए नियमों के अतिरिक्त शेष संस्कृत से आये हुए हैं। इसी प्रकार मार्कण्डेय 'प्राकृतसर्वस्व' के प्रथम पाद के प्रथम सूत्र में लिखते हैं- 'प्रकृतिः संस्कृतं, तत्र भवं प्राकृतमुच्यते ।' अर्थात् संस्कृत मूल भाषा है और उससे जन्म लेनेवाली भाषा को प्राकृत कहते हैं । दशरूपक के टीकाकार धनिक परिच्छेद २, श्लोक ६० की व्याख्या करते हुए लिखते हैं- - 'प्रकृतेः आगतं प्राकृतम् । प्रकृतिः संस्कृतम् ।' यही मत 'कर्पूरमञ्जरी' के टीकाकार वासुदेव, 'प्राकृतप्रकाश' के रचयिता चण्ड और 'षड्भाषाचन्द्रिका' के लेखक लक्ष्मीधर को भी अभिमत है । 'प्रकृतेः संस्कृतायास्तु विकृतिः प्राकृती मता ।' ( लक्ष्मीधर पृ० ४, श्लोक २५ ) अर्थात् मूल भाषा संस्कृत से प्राकृत की उत्पत्ति हुई है । इस प्रकार सब भारतीय विद्वानों ने भिन्न-भिन्न शब्दों में इन्हीं मतों की पुष्टि की है। आधुनिक विद्वानों में डा० रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर तथा चिन्तामणि विनायक वैद्य जी को भी यह मत अभिप्रेत है । परन्तु इसके विपरीत पश्चिमी विद्वान् पिशल आदि का विचार भी विचारणीय है । प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् पिशल का, जिन्होंने प्राकृत के क्षेत्र में बड़े ही परिश्रम और पाण्डित्य से काम करके हम लोगों का बड़ा ही उपकार किया है, कथन है कि - संस्कृत शिष्ट समाज की भाषा थी और प्राकृत अशिक्षित जनों की । प्राकृत भाषा वह थी जिसे साधारण जन बोला करते थे और उसी का संस्कार से सम्पन्न रूप 'संस्कृत' कहलाया। जैसे किसी लकड़ी का एक टुकड़ा पहले अपनी प्राकृतिक अवस्था
SR No.023386
Book TitlePrakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Prasad Mishra
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages320
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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