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________________ AMRArviram २४ વ્યાખ્યાન સાહિત્ય સંગ્રહ ચતુથી સાધુને કઈ ઉપમા આપવી તે ગંભીર પ્રશ્ન છે. સને ૧૯૧૧ “ગુજરાતી ” પત્રમાં “સંદિગ્ધ સંસાર અથવા સાધુ કે શયતાન ” નામક વાર્તામાં કેટલાક દાંભિક ધર્મ પ્રત્યેના સંબંધમાં લખે છે કે – 'हिन्दुस्तान के साधु' ये हमारे आजके व्याख्यान का विषय है. आजकल हिन्दुस्तानमें साधुओंकी संख्या भयंकरतासे बढती जाती है, और उन्के निवाहकाभार स्वल्प आयवाले आरत भारत के गृहस्थ निवासीओं के सरपर पडनेसे दिन दिन भारतवर्ष अवनतिके समुद्रमें डूबता जाता है. कदाचित् यहां कोइ ए शंका उपस्थित करेगा के साघु तो संसार बंधनको तोडनेवाले और धर्मका मार्ग बतानेवाले है, वो अवनतिके कारण किस रीतिसे हो सकते हयें ? ये शंका यथार्थ है और मयेंभी कहता हुं के यदि साधु-सच्चा साधु, निःस्पृही और उद्योगी के कर्तव्यपरायण हो, तो वो अवश्य उन्नतिके शिखर उपरही ले जाता है. परंतु अयसे साधु बहोत कम मिल सकतें हये. विशेषताः आजकलके साधु निरक्षर, जाहिल, और दुर्व्यसनी ही होते हयें. जो विद्वान् तथा प्रतिष्ठित हयें वो निज कर्त्तव्यको भुल मान, अभिमान, प्रतिष्ठा तथा वैभवविलासमें तल्लीन होकर, साधु नाम धारण करते हुवे बडे गृहस्थ बने बयठे हये. अर्थात् भारतवर्ष के गृहस्थ इन साधुओंके पालनपोषण में जो धनका व्यय करते हयें उस्का बदला उन्हें कुछभी नही मिलता हय. देशमें उद्योगहीन और आलस्य भक्तोंको संख्या बढने के कारण देश दिन प्रतिदिन दारिद्रय के अंधःकारसे गीरा जाता हय फिर कोइ ये कहेगा के भाइ ! साधुओंका सिवा रामनाम जपनेके और कर्तव्य ही क्या हय ? क्यों के संसार के कर्तव्योंको छोड करके वो साधु बने है-अगर कर्तव्य करना होता तो साधु क्यों बनतें ? ये कोटि ठीक नहीं हय. जो ये मानेगे, तो फिर जितने कर्त्तव्यहीन पुरुष हों, उन सर्वको साधुही मानना होगा. साधुसंसारके अश्लील प्रपंचोंको तो त्यागता हय, परंतु फिरभी उसका एक कर्तव्य अज्ञान प्रजाको सज्ञान बनानेका हय. बीमारोंकी सुश्रुषा करना और दुःखी मनुष्यों के मनका सींत्वन करना येभी साधुओंका परम कर्त्तव्य हय. परमार्थ साधु होनेके बदले वर्तमान कालमें साधु स्वार्थ साधु ही बने फिरते हये, लक्ष्मीका तथा ललनाका लोभ रखते हये, और खानपानकी वस्तुओंको स्वादसे चखते हयें ! यही उन्का आजकल परम धर्म, परम कर्तव्य और जीवन हो रहा हय. मर्येने अयसे अनेक साधु देखे हये के जो साधु के स्वरूपमें शयतान हयें-किसीने ठीक
SR No.023352
Book TitleVyakhyan Sahitya Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinayvijay
PublisherDevchand Damji Sheth
Publication Year1915
Total Pages620
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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