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________________ के नीचे आराम करने बैठा था। वहाँ उसने अपने मस्तक पर क्रूर शब्द करता एक पक्षी देखा। उसके कटुशब्द से क्षुब्ध होकर राजा ने उसे उड़ाने की चेष्टा की, पर वह उड़ा नहीं। तब क्रोधित होकर राजा ने बाण से उस पक्षी को बींध डाला। फिर धरती पर गिरे और शिथिल होकर तड़पते उस पक्षी को देखकर राजा को कुछ पश्चाताप हुआ। वह वहाँ से लौटकर अपने नगर में आया। उस पक्षी का जीव आर्तध्यानपूर्वक मृत्यु प्राप्त कर किसी वन में भील के कुल में उत्पन्न हुआ और वह भीलकुमार बालपन से ही शिकार करने लगा। एक बार कोमल भाव वाले त्रिविक्रम राजा ने धर्मरुचि नाम के मुनि के पास भाव सहित दयामय धर्म इस प्रकार सुना, दया ही परम धर्म है, दया ही परम क्रिया है और दया ही परम तत्त्व है। इसलिए, हे भद्र ! दया को भज! यदि दया नहीं हो तो उसके बिना दान, ज्ञान, निग्रंथता आदि सब व्यर्थ है और योगचर्या भी अयोग्य है।' कान के लिए अमृत समान, ऐसे धर्म को सुनकर त्रिविक्रम राजा के मन में दया का उदय हुआ, और अपने द्वारा इससे पूर्व क्रूरतापूर्वक मार दिये प्राणियों को भी वह पश्चाताप के साथ याद करने लगा। उसे इस प्रकार पश्चाताप हुआ, 'अहो! अज्ञान के वश में होकर मैंने पूर्व में ऐसा दुराचरण किया है कि जिस से दुःसह, ऐसे विविध प्रकार के अतिशय दु:ख प्रदान करने वाले कष्टों को मुझे भवोभव तक सहन करना पड़ेगा। इसलिए कीचड़ में से कमल और माटी में से सोने की तरह इस असार देह में से सार रूपी व्रत को मैं ग्रहण करूँगा। ऐसे विचार कर उस त्रिविक्रम राजा ने मुनिराज को नमस्कार करके आदरपूर्वक व्रत लेने के लिए महर्षी के पास प्रार्थना की। मुनि ने भी सहर्ष उसे दीक्षा प्रदान की। अनुक्रम से त्रिविक्रम मुनि सब सिद्धांतों का अध्ययन कर और नव तत्त्व को धारण कर विधिपूर्वक व्रत का पालन करने लगे। एक बार शत्रुञ्जय तीर्थ
SR No.023336
Book TitleTritirthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRina Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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