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________________ पित्त और कुष्टादि रोगों का क्रीडामात्र में नाश कर अपना शरीर तपे हुए सुवर्ण जैसा कांतियुक्त करते हैं । जिसके जल में स्नान करने से शरीर (आत्मा के) में से पाप भी चले जाएं, तो औषध से साध्य, ऐसे वातपित्तादि की तो बात ही क्या है ? स्पर्शमात्र से सर्व पापों को हरने वाली यह शत्रुजया नदी प्राणियों को सब तीर्थों के फल की प्राप्ति करावाने में समर्थ प्रत्याभूति (जमानत) रूप है । हे भरतेश्वर ! इस नदी के द्रह के प्रभावशाली जल के स्पर्श से शांतनु राजा के पुत्रों ने सुख पाया था। शत्रुञ्जय तीर्थ
SR No.023336
Book TitleTritirthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRina Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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