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________________ ५ महोदयही राजा विजयसिंघजी और उनकी दोलतके रक्षक निमाये गए थे. उक्त महोदयने अपनी बहादुरी और चालाकी से उस काममें अपनी फर्ज बहुत हि अी तरहसे बजायके उनकी शादी में अधिकता करी और राजा विजयसिंघजीकों इग्लिश, बंगाली, जैनधर्म प्रमुखकी केलवणी देके आगे बढाये. बाबु विजयसिंघजी कों सने १५०० मे ता. २२ मी संबरके रोज लायक उमरवान होनेसे उनकी मिलकतका कबजा सूपरत कर दीया. मी जैसी आशाथी वेसेहि बाबु विजयसिंघजी एक युवक बुद्धीमान् पराक्रमी पुरुष हुए. बाबु विजयसिंघजी का स्वभाव उनके पिताके माफक सद्गुणी व परोपकारी और धर्मकार्यमेजी बहुत सतत प्रयत्नशील हुवा. उपरोक्त दोनो महोदयोंने पुण्यानुबंधी प्राग्नार पुण्यके उदयसे जो जो श्रावश्यकीय कार्य किये है जिनका पूरेपुरा वर्णन करनेमें हमारी कलमको पूरे तोरके शब्दकोश देखनेका व सर देखना पकता है. हमारे लोंके गलके श्रीमंत श्रावक गणमे देशणोंकवाले रायबहार चांदमलजी ढढा, रींयावाले राय सेठजी चांदमलजी, अजमेरवाले रायबाहादुर सेठजी शोभागमलजी ढढा, जयपुवाले राजमान्य सेठजी लक्ष्मीचंदजी व गुलाबचंदजी ढढा, एम.ए. रायबहादुर गणपतसिंघजी दुगम, रायबहादुर महाराज बहादुर सिंघजी गम, रायबहादुर नरपतसिंघजी डुगम, राय लक्ष्मीपति सिंघजी त्रसिंघजी युगम, रायबहादुर शताबचंदजी नाहार विगरह विरह पुण्यवंताने यद्यपि अनेकानेक धार्मिक व्यवहारीक कार्यों करके जैन धर्मकों अनेकवार दीपाया हे विशेषकर बाबु लक्ष्मीपति सिंघजी जी अनेकानेक स्थानोंपर जिन मंदिर बन
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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