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________________ अष्टमपरिजेद. | ততই मंत्रोंसे नूमिजलपट्टादि अधिवासन करने. पी. ॥ __“॥ अत्र क्षेत्रे, अत्र काले, नामाहतो, रूपाईं तो, अव्याहँतो, जावाईतः समागताः, सुस्थिताः, सु निष्ठिताः, सुप्रतिष्ठिताः संतु॥” ऐसें पढके अर्हत् प्रतिमाको स्थापन करे निश्च लबिंबके हुए, चरण अधिवासन करे. ॥ पीछे अंज लि में पुष्प लेके ॥ ___“॥ 3 नमोहन्यः सिद्धेन्यस्तीर्णेन्यस्तारकेच्यो बुझेन्यो बोधकेन्यः सर्वजंतुहितेन्यः इह कल्पन बिंबे जगवंतोहंतः सुप्रतिष्ठिताः संतु ॥” ऐसें मौन करके कहके जगवत्के चरणोपरि पुष्प स्थापन करे. । फिर जी जलार्ड फूलोसे पूजापूर्व क कहे.॥ यथा ॥ "॥ स्वागतमस्तु सुस्थितमस्तु सुप्रतिष्ठास्तु ॥” पीने फिर पुष्पानिषेक करके ॥ ___“॥ श्रयंमस्तु, पाद्यमस्तु. श्राचमनीय मस्तु, सर्वोपचारै पूजास्तु ॥” इन वचनोंकरके वारंवार जिनप्रतिमाके ऊपर जलाई पुष्पारोपण करे ॥ पी जल लेके। ॐ अह वं । जीवनं तर्पणं हृद्यं, प्राणदं मलनाशनं ॥ जलं जिनार्चनेत्रैव, जायतां सुखदेतवे ॥१॥ यह मंत्र पढके जलसें प्रतिमाको अनिषेक करे.
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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