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________________ जैनधर्मसिंधु. के. । एक शुद्ध श्रांबिलकरे, अथवा इतर दो आंबि लकरनेसें, एक उपवास होता है. पणतालीस (४५) नवकारसहि करनेसे एक उपवास होता है. चौवी स (२४) पोरसि करनेसें, और दश (१०) साढपो रसी करनेसें, एक उपवास होता हैं. तीन निवि करनेसें, और चार एकलगणे करनेसें, एक उपवास होता है. श्राचरणासे सोलां (१६) पुरिमढ कर नेसें उपवास होता है. चार एकासनेसें, और पाठ बियासणे करनेसें नी, उपवास होता है. अर्थात् उपवासका जो फल है, सोही प्रायः पूर्वोक्त तपका फल है. इसवास्ते जिसकी पूर्वोक्त उपधानकी शक्ति न होवे सो, श्न तपोंमेसें किसी जी तपके करनेसें उपधान प्रमाण पूर्ण करे. ॥ ११॥ गौतमखामी कहते हैं. हे जगवान् ! ऐसे करते हुए प्राणीको बहोत काल होवे तो, कदापि नवका रवर्जित नि, तिसका मरण हो जावे, तो नवकार वर्जित सो प्राणी, अनुत्तर, निर्वाण, कैसे प्राप्त करें ? तिसवास्ते नवकार प्रथमही ग्रहण करो, उपधान होवे, वा न होवे. ॥ १३ ॥ महावीर स्वामी कहते हैं. हे गौतम ! जो प्राणी जिस समयमें व्रतोपचार (उपधानारंज) करे, तिसही समयमें, तूं जिनाज्ञाकरके ग्रहण करा हैं व्रतार्थ जिसनें, ऐसा तिसको जाण. ॥ १४ ॥ ऐसें जिसने
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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