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________________ अष्टमपरिच्छेद. १६ " ॥ उति सेल सिहरे, दिरका नाणं च निसी हि या जस्स । तं धम्मचक्कवहिं, श्ररिनेमिं नम॑सामि | ४ । चत्तारि दस दो छा, वंदिया जिणवरा चवीसं । परमहनि हिडा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसं तु ॥ ५ ॥ इत्युपधानवाचना स्थितिः ॥ श्रथ विस्तार, निशीथ सिद्धांत उधृत उपधानप्रकरणसें 'जानना. ॥ "" नावार्थ:- पांच नमस्कार में पांच उपवासका उप धान होता है, आठ श्राचाम्ल तथा अंत में एक श्रष्टमतप, और बत्तीस श्राचाम्ल. चैत्यस्तवमें एक उपवास, और तीन याचाम्ल करणे. । चतुर्विंशति स्तवमें एक षष्ठतप, एक उपवास, और पंचवीस (२५) चाल करणे । श्रुतस्तव में एक उपवास, और पांच श्राचाम्ल । तीर्थंकर गणधरोंने चैत्यवं दनादि सूत्रमें यह उपधान कथन करा है. ॥ ५ ॥ व्यापाररहित, विकथाविवर्जित, रौद्र ध्यान रहित, विश्राम रहित उपयोगसहित, उपधान करे, ॥ ६॥ यह उत्सर्ग कहा . ब अपवाद कहते हैं. अथ कदापि उपधानवादी बालक होवे, वा वृद्ध होवे, वा शक्तिरहित तरुण होवे तो, अपनी शक्तिप्रमाण उपधान प्रमाण पूर्ण करे । रात्रिजोजनकी विरति, चतुर्विधादार, वा त्रिविधाहार वा द्विविधाहार प्रत्या ख्यानरूप करे; नवकारसहिश्रादि पञ्चरकाण कर ९७
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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