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________________ ५ अष्टमपरिछेद. देशविरतिसामायिक श्रारोपण करना हैं.। तहां नंदि, चैत्यवंदन, कायोत्सर्ग, दमाश्रमणादि, सर्व विधि पूर्ववत् जाणनी. परंतु सर्वत्र सम्य क्त्वसामायिकके स्थानमें देशविर तिसामायिककानाम ग्रहण करना. । सर्वत्र तैसें करके फिर दूसरी नंदि दंगकोच्चारकालमें नमस्कार तीन पागनंतर, हाथमें ग्रहण करे परिग्रह परि माण टिप्पनक(फहरिस्त-नोंध) ऐसे श्रावकको गुरु, देशविरतिसा मायिकदमक उच्चरावे. ॥ सयथा ॥ ___“॥ अहणं जंते, तुह्माणं समीवे, थुलगं, पाणा श्वायं, संकप्पश्रो, बीइंदियाश्जीवनिकायनिग्गहनि यटिरूवं, निरावराहं, पञ्चक्खामि जावजीवाए, 3 विहं तिविहेणं, मणेणं, वायाए, कारणं, न करेमि, न कार वेमि, तस्स नंते पमिकमामि, निंदामि, गरि हामि, अप्पाणं, वोसिरामि, ॥" यह पाठ तीनवार कहना ॥१॥ इसीतरें सर्व व्रतोंमें तीन २ वार पाठ पढना.॥ ___“ ॥ अहणं नंते, तुह्माणं, समीवे, थूलगं, मुसा वायं, जीहाव्याशनिग्गहहेऊअं, कन्ना, गोनूमि, निकेवावहार, कूम सरकाश, पंचविहं, दरिकन्ना अविसए, अहागहिथ जंगएणं, पञ्चरकामि, जावजीवाए, विहं तिविदेणं, मणेणं वायाए, काएणं ॥५॥"
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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