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________________ १६ जैनधर्मसिंधु. वखतसर साम्यतासें जोजन करनेवाला, एक दूसरेकी हानी न होवे इस रीतिसें धर्म अर्थ कामको सेवने वाला;। यथायोग्य अतिथि साधु और दीनकी प्रति पत्ति करनेवाला, सदा आग्रहरहित, गुणोंका पद पाती; । देशकालविरुछचर्या त्यागनेवाला,।कोश्नी कार्य करने में अपना बलाबल जाननेवाला, जे पांच महाव्रतमें स्थित होबे और ज्ञानवृक्ष होवे तिनकी पूजा नक्ति करनेवाला, पोषणेयोग्यका पोषण करने वाला, । दीर्घदर्शी, विशेषज्ञ, कृतज्ञ, लोकवखन, ल जानु, दयालु, सौम्य, परोपकार करणेमें समर्थ, काम, क्रोध, लोन, मान, मद, हर्ष, श्न षट ६ अंत रंग बैरियोंके त्याग करनेमें तत्पर, पांच इंजियोंके समूहको वश करनेवाला, ऐसा पुरुष गृहस्थधर्मके वास्ते कल्पता है ॥ १० ॥ ऐसे पुरुषको व्रतारोप करना चाहिये । प्रायःकरके व्रतारोपमें गुरु शिष्यके वचन प्राकृत नाषामें होते हैं, क्यों कि गर्जाधानादि विवाहपर्यंत संस्कारों, प्रायः करके गुरुकेही वचन है, शिष्यके नहीं और गुरु प्रायः शास्त्रविद् होते हैं, इसवास्ते संस्कृतही बोलते है. । इहां व्रतारोपमें बाल, स्त्री, मूर्ख शिष्यों का दमाश्रमणदानपूर्वक वचनाधिकार है, तिस वास्ते तिनको संस्कृत उच्चार असामर्थ्य होनेसें प्राकृत वाक्य है. तिसकी साहचर्यतासें तिसके
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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