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________________ ६२ जैनधर्मसिंधु. यके पूंबसे पकडके, रूप्यमय खुरा है जिसके, स्वर्ण मय श्रृंग है जिसके, ताम्रमय पृष्ठ है जिसकी, कांस्य मय दोहपात्र है जिसका, ऐसी धेनु, गृहस्थगुरुके तां देवे । गुरु तिस गौकी पूंबको हाथमें धारण करकें, यह वेदमंत्र पढे । यथा ॥ ___ “॥ ॐ है गौरियं धेनुरियं प्रशस्यपशुरियं सर्वोत्तमदीरदधि घृतेयं पवित्रगोमयमूत्रेयं सुधाता विणीयं रसोनाविनीयं पूज्येयं हृद्येयं अनिवाद्येयं तदत्तेयं त्वया धेनुः कृतपुण्यो नव प्राप्त पुण्यो नव श्रदयं दानमस्तु अर्ह 3 ॥" यह कहकर गृहीगुरु धेनुको ग्रहण करे. शिष्य तिस गौकेसाथ प्रोणप्रमाण सात धान्य, तुलामात्र षट् (६) रस और पुरुषतृप्तिमात्र षट् (६) विकृती (विगय) देवे ॥ इतिगोदानम् ॥ अन्य सर्व नूमिर रत्नादिदानों विषे यह मंत्र पढना.। यथा ॥ ___“॥ ॐ अहे एकमस्ति दशमकमस्ति शतमस्ति सहस्रमस्ति अयुतमस्ति लदमस्ति प्रयुतमस्ति को ट्यस्ति कोटिदशकमस्ति कोटिशतकमस्ति कोटिसह समस्ति कोव्ययुतमस्ति कोंटिलतमस्ति कोटिप्रयुत मस्ति कोटाकोटिरस्ति संख्येयमस्ति असंख्येयमस्ति अनंतानंतमस्ति दान फलम स्ति तदक्षयं दानमस्तु ते अह उँ ॥” इति परेषां दानानां मंत्रपाठः ॥
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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