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________________ अष्टमपरिजेद. वत्स ! तैनें ब्राह्मणपणा, वा क्षत्रियपणा, वा वैश्य पणा प्राप्त करा है, अंगीकार करा है; तिसवास्ते हे वत्स ! तूं गृहस्थधर्ममें मोदके सोपानरूप दान देनेका प्रारंज कर.। तब नस्कार करके शिष्य कहे, हे जगवन् ! मुझको दानका विधी कहो. । गुरु कहे 'श्रादिशामि' कहता हूं । यथा ॥ गावो नूमिः सुवर्णं च रत्नान्यन्नं च नक्तकाः ॥ गजाश्वाति दानं तदष्टधा परिकीर्तयेत् ॥१॥ एतच्चाष्टविधं दानं विप्राणां गृहमेधिनाम् ॥ देयं न चापि यतयो गृह्णन्त्येतच्चनिःस्पृहाः॥२॥ यतिन्यो नोजनं वस्त्रं पात्रमौषधपुस्तके ॥ दातव्यं अव्यदानेन तौ छौ नरकगामिनौ ॥३॥ ___ अर्थः-गौ १, नूमि २, सुवर्ण ३, रत्न ४, अन्न ५, नक्तक वस्त्र विशेष ६, हाथी ७, और घोमा ७, येह आठ प्रकारका दान कहाहे । यह पूर्वोक्त आठ प्रकारका दान, गृहस्थी ब्राह्मणगुरुयोंको देना. और निःस्पृह यति साधु मुनिराज, इस दानको नही लेते हैं । साधवोको तो, जोजन, वस्त्र, पात्र, औषध पुस्तक, इनका दान देना. साधुकों अव्य (धन) का दान देनेसें, देनेलेनेवाले दोनोंही नरकगामी होते हैं. ॥३॥ तिसवास्ते प्रथम गोदान ग्रहण करना. उपनीत, वडडेसहित कपिला, वा पाटला, वा श्वेत रंगकी, नापित, चर्चित, जूषित, धेनुको, आगे ख्या
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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