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________________ अष्टमपरिछेद. ६४७ शौचरहितोऽस्मि । ब्रह्मरहितोऽस्मि । देवर्षिपितृति थिकर्मसु नियोजय मां ॥” ऐ से कहकर फिर “नमोस्तु ” ऐसें कहता हुश्रा, गुरुके चरणों में पमे; गुरु जी. इस मंत्रको पढके उपनेयको चोटीसें पकमके खमा करे । मंत्रो यथा ॥ _ “अहँ देहिन् निमग्नोऽसि नवार्णवे तत्कर्षति त्वांनगवतोऽर्हतः प्रवचनैकदेशरज्जुना गुरुस्तफुत्तिष्ट प्रवचनादानाय श्रद्दाधाहि अहँ उँ॥” । __ ऐसें पढके उपनेयको खडा करके अर्हत्प्रतिमाके आगे पूर्वाभिमुख खडा करे. तदपी गृहीगुरु, त्रितं तुवर्तित-तीन तंतुकी वुणी, एकाशीति (७१) हाथ प्रमाण, मुंजकी मेखलाको अपने दोनों हाथों में लेके, इस वेदमंत्रको पढे.. __“॥ ॐ अहँ आत्मन् देहिन् ज्ञानावरणेन बको ऽसि । दर्शनावरणेन बद्धोऽसि । वेदनीयेन बद्धोऽसि । मोहनीयेन बझोऽसि । आयुषा बकोऽसि । नाम्ना बकोऽसि । गोत्रेण बकोऽसि । अंतरायेण बझोऽसि कर्माष्टकेन प्रकृतिस्थितिरसप्रदेशैश्च बकोऽसि । तन्मोचयति त्वां जगवतोर्हतः प्रवचनचेतना तद्ध ध्यख मामुहःमुच्यतां तव कर्मबंधनमनेन मेखलाब धेन अहँ ॐ ॥" ___ ऐसा पढके उपनेयकी कटिमें नवगुणी मेखला को बांधे । तदपी उपनेय 'नमोस्तु २' कहता
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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