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________________ ६४४ जैनधर्मसिंधु. में मंगल विना अन्य वारोमे दिनशुध्धीमे, शुजग्नह युक्त लग्नमे, विवाह वत् त्याज नक्षत्रदिन मासा दिकको वर्जके, ग्रह निर्मुक्त पांचमें व्रत आचरे. प्रथम यथा संपत्ति करके उपनेय ( जिनोपवीत लेनेवाले) पुरुषकों सात, नव, पांच, वा तीन दिनतक सतैल निषेक स्नान (पीही मर्दन) करावे.तदपीले लग्नदिनमें गृहस्थ गुरु तिसके घरमें ब्राय मूहुर्तमें पौ ष्टिक करे. तदनंतर उपनेयके शिरपर शिखा वर्जके मुं मन करावे,पी वेदी स्थापन करे. तिसके मध्यमे चोकी (बाजोट) स्थापन करे, वेदी प्रतिष्टा विवाहा धिकारसें जाणनां. बाजोटके उपर समव सरणकी रीति मुज ब चोमुख (चारजिन बिंब) स्थापन करना, तिन की पूजा करके गृहस्थ गुरु, जिसने श्वेतवस्त्र पहि नाहे, वस्त्रका उत्तरासंग करा हे, अदत श्रीफल सुपारी हाथमे लिएहें, एसे उपनेयकों समवसरण को तीन प्रदक्षणा करावे, तदपीने गुरु उपनेयकों वामे पासे स्थापके पश्चिम दिशाके सन्मुख जिसका मुखहे तिस जिन बिंबके सन्मुख बेठके प्रथम रुष न देवके स्तोत्र सहित शक्रस्तव (नमुथ्थुणं ) पढे फेर तीन प्रदक्षिणा करके उत्तरानिमुख जिनबिंबके सन्मुख तेसेंहिं शक्रस्तव पढे. एसेंहि त्रिप्रदक्षिणां तरित पूर्वाभिमुख, दक्षिणा निमुख जिन बिंबोके आगेनी शकस्तव पढेः मंगल गीत वाजित्रादिकों
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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