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________________ ६३३ अष्टमपरिद. शुक्र, सूर्य, बृहस्पति, इन वारमें शुल तिथीमें शुन योगमें कर्णवेध करणा. ॥श्न निर्दोष तिथि वार नक्षत्रमें बालकको चंबलके हुए कर्णवेध श्रारंज करे. । उक्तं च । “ग धान, पुंसवन, जन्म, सूर्यद र्शन, हीराशन, षष्ठी, शुचि, नामकरण, अन्नप्राशन, मृत्यु, इन संस्कारोंमें अवश्य कार्य होनेसे पंमित पुरुषोंने वर्षमासादिकी शुकि न देखणी.। कर्णवेधा दिक अन्य संस्कारों में विवाहकीतरें वर्ष मास दिन नदत्रादिकोंकी शुद्धि अवश्यमेव विलोकन करणी। यथा। तीसरे पांचमे सातमे निर्दोष वर्षमें बालकको और बालककी माताको अमृतामंत्र अनिमंत्रित जलकरके मंगलगानपूर्वक अविधवायोंके हांथेकरी स्नान करावे. । और तयां कुलाचारसंपदा अतिशय विशेषकरके तैल निषेकसहित तीन पांच सात नव ग्यारह दिनांतक स्नानका विधि जाणना, । तिसके घरमें पौष्टिकको करणा, षष्ठीको वर्जके मात्रष्टकपूजन पूर्ववत् करणा, । तदपीने व ५ कुलानुसार अन्य ग्राममें कुलदेवताके स्थानमें पर्वतउपर नदीतीरे वा घरमें कर्णवेधका आरंज करे. । तहां मोदक नैवेद्य करण गीतगान मंगलाचारादि ख कुलागत रीति करके करणा. तदपी बालकको पूर्वाभिमुख श्रास नऊपर बिठलाके तिसके कर्णवेध करे तहां गुरु यह वेदमंत्र पढे । यथा ॥
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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