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________________ अष्टमपरिवेद. करे; देशोत्पन्न और अन्य नगरोंमेंसें जे प्राप्त होवे, तिन सर्व फलोंको, और षट्विकृयोंको गृहण करे। तदपीने सर्व अन्नोंको, सर्व शाकोंको, सर्व विकृती योंको, घृत, तैल, कुरस, गोरस, जल, इत्यादिकों सें पकाये हुए बहुतप्रकारके पदार्थोको पृथक् न्यारे २ करे. । तदपी अर्हतप्रतिमाका बृहत्स्नात्र विधि सें (प्रतिष्टा विधिमे लिखेंगे) पंचामृतस्नात्र करके पृथक पात्रोंमें तिन अन्न शाक विकृति पाकादिकोंको जिनप्रतिमाके आगे अईत्कल्पोक्त विंशोपचारी नैवेद्यमंत्रकरके ढोवे. सर्वजातके फलजी ढोवे । तदपीजे बालकको अर्हत्स्नात्रोदक पिलावे. । फिर जिनप्रतिमाके नैवेद्यसें उझरित बची (हुश्) तिन सर्ववस्तुयोंको सूरिमंत्रके मध्यगत अमृता श्रवमंत्रकरके श्रीगौतमप्रतिमाके आगे ढोवे, । तिससे उझरित वस्तुयोंको कुलदेवताके मंत्रकरके गोत्रदेवीकी प्रतिमाके आगे चढावे, । तदपीने कुल देवीके नैवेद्यमेंसे योग्य आहार मंगलगीत गाते हुए माता पुत्रके मुकमें देवे. । और गुरु यह वेद मंत्र पढे. ॥ यथा ॥ . “॥ अहँ लगवानईन् त्रिलोकनाथस्त्रिलोक पूजितः सुधाधारधारितशरीरोपि कावलिकाहारमा हारितवान् । तपस्यन्नपि पारणा विधाविकुरसपरमान्न नोजनातू परमानंदादापकेवलं तद्देहिन्नौदारिकशरी
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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