SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 652
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६१८ जैनधर्मसिंधु. 1 1 त्रमसि । जगजीवनमसि । जैवातृकोऽसि । क्षीरसा गरोङ्गवोऽसि । श्वेतवाहनोऽसि । राजाऽसि । राजराजोऽसि । औषधी गर्भोऽसि । वंद्योऽसि । पूज्योऽसि । नमस्ते जगवन् अस्य कुलस्य रुद्धिं कुरु । वृद्धिं कुरु । तुष्टिं कुरु । पुष्टिं कुरु जयं विजयं कुरु । जीं कुरु । प्रमोदं कुरु । श्रीशशांकाय नमः । श्र ॥” ऐसें पढता हुआ, माता पुत्रको चंद्र दिखला के खमा रहे । माता पुत्र सहित गुरुको नमस्कार करे . । गुरु आशीर्वाद देवे. ॥ यथा । वृत्तम् ॥ सर्वोषधी मिश्रमरी चिजालः सर्वापदां संहरणप्रवीणः ॥ करोतु वृद्धिं सकलेपि वंशे युष्माकमिन्दुः सततं प्रसन्नः तदपीछे गुरु जिनप्रतिमा, और चंद्रप्रतिमा दोनोंको विसर्जन करे । इसमें इतना विशेष है । कदा चित् तिस रात्रिके विषे चतुर्दशी श्रमावास्या के वशसे वा वादलसहित श्राकाशके होनेसें चंद्रमा न दिखलाई देवे तो जी पूजन तो तिस रात्रिकी ही संध्या में करना; और दर्शन तो और रात्रिमें जी चंद्रमाके उदय हुए हो सक्ता है. ॥ सूर्य और चंद्र माकी मूर्ति, तिसकी पूजा की वस्तु, सूर्यचंद्रदर्श नसंस्कार में चाहिये. ॥ इति चंद्रसूर्य दर्शनसंस्कारविधिः ॥
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy