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________________ ६०० जैनधर्मसिंधु. हाथमे उघा(चरवला ) मुहपत्ति देना उर वाम हा थमे नग्न पात्र तथा एक लमु सहीत जोली देनी. दो पुतले होय तो दोनोकों देना. पिवें शोकयुक्त चित्तसे महोत्सव सहित योग्य स्थानके ले जाके चं दनादि काष्टोंसें अग्नि संस्कार करना. प्रांतमें सर्व अग्नि शांत कर रदा योग्य स्थानकों परठवणी पिडे गुरु पास आयके लघुशांति वा वृक्षशांति सुनके अनित्यताका उपदेश श्रवण कर स्वस्थानक जाना. ५ श्राहार कररहै पिंडे जगचितोमणीका. ६ दैवसिक प्रतिक्रमके प्रारंजमे. संथारा पोरिसी नणावणमें चउकसायका २४ साधु दररोज चारवार सकाय करे सोस प्रमाणे, १ सवेरकी पडिलेहणके अंतमें धम्मो मंगल की. २ सांजकी पमिलेहण मध्यमे धम्मो मंगल की. २ देवमिक प्रतिक्रमणके अंतमें कहते हैं सो. संथारा पोरिसी नणावणमें चउकसायका २४ साधु दररोज चारवार सकाय करे सोश्स प्रमाणे, १ सवेरकी पडिलेहणके अंतमें धम्मो मंगल की. २ सांजकी पमिलेहण मध्यमे धम्मो मंगल की. ३ दैवसिक प्रतिक्रमणके अंतमें कहतें हें सो. ४ राश् पमिकमणाके प्रारंजमे जरदेसर की. सप्तम परिवेदः समाप्तः
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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