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________________ पए जैनधर्मसिंधु धारक गुरु ज्ञानमयी. दर्शनमयी चारित्रमयी, शुद्ध श्रमामय, शुरू प्ररुपणामय, शुक स्पर्शनामय, पंचा चार पाले पलावे, अनुमोदे, मनगुप्ति वचनगुप्ति, कायगुप्तिसें गुप्ता" यह तेरह बोल बोलके पांचोंस्थाप नाजीकी पृथक पृथक् पमिलेहणा करे. पिलें स्थाप नाजी संबंधी उसरी मुह पत्तिये पमिलेहे. ( सांज की पमिलेहण वखत पडेली स्थापनाजीकी सब मु हपत्तियें पमिलेहना. पिलें स्थापनाजी बांधके उवणी उपर रखके खमा समण देके श्वा उपधि मुहपत्ति पडिलेडं ? श्वं कही मुहपत्ति पमिलेही,खमा० श्याम उपधि संदिसाहुं ? श्वं, खमा० श्छा० उपधि पनि लेहु ? छ. कही दूसरे सववस्त्र पडिलेहने अंतमें मंमक पडिलेहना पिढें डंमासण लेके पमिलेही, इरिथावही पमिकमी, काजा लेना पिलें रियावही पमिकमी काजा परग्वना. पिढें इरिश्रावही पमिक मी, खमासण देके श्बा सफाय करूं ? श्वं कही एक नवकार गणी 'धम्मो मंगल मुकिळं, ए सफाय कहेना. इतिप्रातः पमिलेहण विधि (संध्या पमिलेहण विधि ) खमासमण देके श्छा बहु पमिपुन्ना पोरिसि ? खमासमण देके इरियावही पमिकमी खमासमण देके श्या० पमिलेहण करुं? खमा० श्चा० वस्ती प्रमाणु ? श्वं कहके उपवास कीया होय तो मुहप
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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