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________________ सप्तमपरिद. एन्ए तिकडे । सिरसा मणसा । मबएण वंदामि ॥४॥ निबारगपारगाहोह ॥ इति पादिक दामणा ॥ साधुकों दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण में अतिचारकी आठ गाथाके स्थानपर गुणनेकी एक गाथा. सयणासन्न पाणे, चे जश् सिज काय उच्चारे । समिश्नावणा गुत्ती,वितहायरणे य श्राश्यारो॥१॥ यह गाथा गुण तेतिस्में कहिहुश् बातें संबंधी जो कुछ अतिचार लगा होसो सांधुने याद करना. सामान्य साधुसे गुरुको अल्प व्यापार होनेसें गुरुने दोवार यह गाथा अर्थ सह विचारनी. __ (प्रातः पमिलेहणकी विधि ), रिश्रावही पमिकमी, खमासमण देके, इलाका रेण संदिसह जगवन् पमिलेहण करूं? 'श्वं' कही मुहपत्ति ५० बोलसें, उघो १० बोलसें, कटासण २५ बोलसें, कंदोरा १० और चोलपट्टा २५ बोलसें पमि खेहना. पिढे इरियावही पमिकमके, खमासमण देके, श्चकारी जगवन् पसाय करी पमिले हणा प मिलेहवोजी, एसा कहके स्थापनाचार्यकी पडिलेह णा करनीसो नीचे प्रमाण. प्रथम कामली पमिलेही संकेलके तिस उपर स्थापनाचार्य रखणी. पिच् थापनाजी. बोमीके प्रथम उपरकी एक मुहपत्ति पमिलेहे पियें "शुशखरूपके
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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