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________________ ५४६ जैनधर्मसिंधु. ॥२०॥ गंनो परण्यो विक्रम राय ॥ केतलेकाले जाणे माय॥प्रगट परणावितव पुत्रीका॥श्रीपती नेटी पड्या तव तिका॥२१॥नरपतीनांप्रणमी त्यांपाय॥श्रीपती निजघर लेई जाय॥असन पान करीराजा सुए॥सेठ सहित नृप चित्रामण जुवे ॥२॥ बोल्याबरस जब साढासात ॥ अविलोके शनी नृपनीवात ॥श्रावी हंस मध्ये संक्रमी॥हार घोमले मुक्यो वमी ॥२३॥ अढी संवटर मस्तकें रहे॥ अढी नाजि जोतीषीया कहे ॥ अढी संवत्सर चरणे वासाहु सनी सर त्रीजो तास॥ ॥२॥ जन्मद्वितिय चोथो श्राठमो ॥छादसमोशनी सरवडो॥ एह कथा सांजलस्ये जेह ॥ कुंन रास फल पामें तेह ॥ २५ ॥ तेदने तुंपीडेनही कदा॥ ए वर थापो शनिसर सदा ॥ वर देई शनी थानकें गयो। होराय उजेणी गयो ॥ २७ ॥ चाल्यो चतुरंगसे नाकरी॥श्राव्यो जिहा उजेणी पुरी ॥ निज जुवने विक्रम श्रावी ॥अखिल लोक वधावो दिउँ ॥२॥ सिझसेन गुरु वचनें करी॥ लह्यो धर्म समकित बाद रीमहाकाल तिरथ जहरी॥पर फुःखटालण दानेश्वरी ॥शए ॥ सुखे समाधे पालेराज ॥लहि समकित नर सारे काज॥ निरयावली उपांगे कह्यो॥ एका वतारी शनि सर लह्यो ॥ ३० ॥ एह कथा डे शनीवर तणी । पीमा नकरे चोपई जणी ॥ सुख संपति ते सघली लदे ॥ पंमित ललित सागर श्म कहे ॥३१॥
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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