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________________ शष्टमपरिच्छेद. ४८३ र संसार पार पामी, आव्या यास धारी प्रभु पाय स्वामी ॥ तुहिं तुहिं तुहिं प्रभु परम रागी, जव फेरनी श्रृंखला मोह जागी ॥ १४ ॥ मानीयें वीरजी अर्ज वे एक मोरी, दीजे दासकुं सेवना चरण तोरी ॥ पुण्य उदय हुई गुरु याज मेरो वीवेकें लोमे प्र दर्श तेरो ॥ १५ ॥ इति ॥ ॥ अथ श्री नवकारनो बंद || ॥ दोहा ॥ वंदित पूरे विविध परे, श्री जिन सासनसार || निश्चय श्रीनकार नित्य, जपतां जयज यकार ॥ १ ॥ यमशह दार अधिक फल, नव पद नवे निधान || वीतराग स्वय मुख वदे, पंच परमेष्टि प्रधान ॥ २ ॥ एक अक्षर एक चित्त, समस्या संपत्ति थाय ॥ संचित सागर सातनां, पातिक दूर पलाय ॥ ३ ॥ सकल मंत्र शिर मुकुट मणि, सरु जापित सार । सो जवियां मन शुद्धशुं, नित्य जपीये नवकार | दहाटकी || नवकार थकी श्रीपाल नरेशर ॥ पाम्यो राज्य प्रसिद्ध ॥ समशान विषे शिवनाम कुमरने, सोवन पुरिसो सिद्ध || नव लाख जपंता नरक निवारे, पामे जवनो पार ॥ सो जवियां जत्तें चोखे चित्ते, नित्य जपीये नवकार ॥ ५ ॥ बांधि शाखा शिंके बेसि, देवल कुंड हुताश ॥ तस्कर ने मंत्र समय श्रावके, उड्यो ते श्राकाश ॥ विधि
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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