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________________ ४५४ जैनधर्मसिंधु प्रखर बीतगया यो वेरा रे ॥ चिदानंद प्रभु पदपंक ज सेवत, बहुरि न होय जव फेरारे ॥ मान० ॥ ३॥ ॥ वैराग्योपदेशी पद ॥ ॥ राग धनाश्री ॥ मूल्यो जमत कहा वे जा न ॥ मूल्यो० ॥ ए यांकणी ॥ श्राल पंपाल सकल तज मूरख कर अनुभव रस पान ॥ क० १ ॥ आप कृ तांत गड़ेगो इक दिन, हरि मृग जेम यचान ॥ होयगो तन धनथी तुं न्यारो, जेम पाको तरु पान ॥ कल्यो० ॥ २ ॥ मात तात तरुणी सुत सेंती, गर ज न सरत निदान ॥ चिदानंद ए वचन हमारो, धर राखो प्यारे कान ॥ कट्यो ॥ ३ ॥ इति ॥ ॥ वैराग्योपदेशी पद ॥ ॥ राग जैरव ॥ जागरे बटाउ अब, जइ जोर वेरा ॥ जाग० ए यांकणी ॥ जया रविका प्रकाश, कुमुद ये विकास || गया नाश प्यारे मिथ्या, रेनका अंधेरा ॥ जा० ॥ १ ॥ सूता केम यावे घाट, चालवी जरुर वाट || कोइ नांहि मित्त परदेश में ज्युं तेरा ॥ जा० ॥ २ ॥ अवसर बीत जाय, पिबे पिबतावो थाय ॥ चिदानंद निहचें, ए मान कहा मेरा ॥ जागरे बटाउ अब जइ जोर वेरा ॥३॥ इति ॥ अथ वैराग्योपदेशी पद ॥ ॥ राग आशावरी ॥ घट विणसत वार न लागे ॥ उघट ॥ ए झांकणी ॥ याके संग कहा श्र
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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