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________________ पंचमपरिछेद ४५३ र पडतावा हो ॥ जग ॥३॥ नवि अनुपम नर जव हारो, निज शुरू स्वरुप निहारो ॥ अंतर मम ता मल धो॥ जग ॥ ४ ॥ प्रजु चिदानंदकी वा पी, धार तुं निश्चे जग प्राणी ॥ जिम सफल होत जव दोश् ॥ जग ॥५॥ इति ॥ ॥वैराग्योपदेशी पद ॥ ॥ जूनी जूठी जगतकी माया, जिन जाणी नेद तिन पाया ॥ जू ॥ ए श्रांकणी ॥ तन धन जोबन सुख जेता, सऊ जाणहुँ अस्थिर सुख तेता ॥ नर जिम बादलकी बाया ॥ जूती ॥१॥ जिम अनित्य नाव चित्त आया ॥ लख गलित वृषनकी काया ॥ बूजे कर कंमुराया ॥ जूठी ॥ २ ॥ श्म चिदानंद न मनमांही, कबु करीए ममता नाहीं ॥ सदगुरुए नेद लखाया ॥ जूठी ॥३॥ ॥वैराग्योपदेशी पद ॥ ॥राग प्रजाती ॥ मान कहा अब मेरा मधुकर ॥ मान ॥ ए आंकणी ॥ नाजिनंदके चरण सरोज में, कीजे अचल बसेरा रे ॥ परिमल तास लहत मन सेहेजे, त्रिविध पाप उतेरा रे ॥ मान ॥१॥ जदित निरंतर ज्ञान नान जिहां, तिहां न मिथ्यात अंधेरा रे ॥ संपुट होत नही ताते कहा, सांज क हा सवेरा रे ॥ मान० ॥२॥ नहितर पडतावोगे
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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