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________________ ५५० जैनधर्मसिंधुः बंगो कषाय ते शोल रे ॥ नवियण दिन दिन पा मी रे, संपदा पुण्यरंग रोल रे ॥ ना० ॥११॥ जिम शशी शोलकली सही रे, नांखे जिनवर वाच रे॥ तिम ए धर्म कला सशी रे, पामीयें जगतमांसाच रे ॥ ना० ॥ १२ ॥ पूरणमासी ए जाणीने रे, जे स सही करशे ए पुण्य रे ॥ विजयलब्धि ते पामशे रे, दिन दिन निज सुखतन्न रे ॥ ना० ॥ १३ ॥ श्राम चउदश पूर्णिमा रे, अंग उपांगें अधिकार रे ॥ जिनवरें कहियो माहानिशीथमां रे, बीजप्रमु खनो विचार रे ॥ ना ॥ १४ ॥ ते सवि जाणो व्यव हारथी रे, धर्म उद्यम उपदेश रे ॥ निश्चयमार्गे अ प्रमादी जे होवे रे, ते पाले पंदर तिथि विशेष रे॥ ॥जाम् ॥ १५ ॥ एम जाणीने जवि जावियें रे, अव्य ने नावथी धर्म रे ॥ सघली तिथि आराधतां रे, लब्धि कहे सदा सुख शर्म रे जा ॥ १६ ॥ ॥अथ उपदेशी पद ॥ में हुं मुसाफर पाया हो प्यारा, नही को मे रा॥ नही० ॥ जनम दुवा तब अपना कहावे, न ही रेहेणेका डेरा हो प्यारा ॥ नही० ॥१॥ सजन कुटुब सब अपना कहावे, ज्युं तीरथका मेला हो प्यारा ॥२॥धन कंचन कबु स्थिर नही रेहेणां, ज्यु बादलका घेरा हो प्यारा ॥नही॥३॥ रुपचंद कहे प्रेमकी बातां, ज्युं धानीका फेरा हो प्यारा॥४
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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