________________
४१२
जैनधर्मसिंधु. ॥अथ वीश स्थानकना तपनो सद्याय ॥ ॥श्रीसीमंध साहेब आगें ॥ ए देशी ॥ अरि हंत पहेले थानक गणीयें, बीजे पद सिद्धाणं ॥त्री जे पवयण शायरिय चोथे, पांचमे पद थे राणं रे ॥ नविया ॥ वीश थानक तप कीजें ॥ श्रोली वीश करीजें रे ॥ ज० ॥ गणणुं एह गणीजें रे ॥ ज०॥ जिम जिनपद पामीले रे ॥ ज० ॥ नर जव लाहो लीजें रे ॥जणावी॥१॥ ए श्रांकणी ॥ उवद्याए बके सव्वसाहूणं, सातमे श्रारमे नाण नवमे दंसण दस मे विणयस्स, चारित्र अगियारमे जाण रे ॥ ज० ॥ ॥ वा ॥२॥ बारमे बंजवय धारीणं, तेरस मे कि रियाणं ॥ चउदमे तव पन्नरमे गोयम, सोलसमें न मो जीणाणं रे ॥ ज०॥ वी० ॥३॥ चारित्तस्स सत्त रमे जपीगें, अढारसमे नाणस्स ॥ उगणीशमे नमो सुयस्स संजारो, वीशमे नमो तित्थस्स रे ॥ नम्॥ ॥ वी० ॥ ४ ॥ एकासणादिक तप देव वंदन, गण| दोय हजार ॥ संध विनय बुध शिष्य सुदर्शन, जंपे एह विचारो रे ॥ ज० ॥ वी० ॥ ५॥ इति ॥
॥शीयल विषे शीखामणनो सद्याय ॥ ॥ ढाल ॥ एतो नारी रे, बारी बे पुर्गति तणी॥ बगंम संगत रे मूरख तुं परस्त्री तणी ॥ जीव जोला रे, मोला तेहगुं मंम करे ॥ शीख मानी रे, बानी वात तुं परिहरे ॥ १॥ त्रुटक ॥ जो वात करीश