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________________ पंचमपरिच्छेद. ४०३ सान रे ॥ टक ॥ मधुबिंडु चाखे, वचन जाखें, करे लालच लखवली ॥ वार वार राखे सान पाखे, रहो क्षण एक पर रली ॥ तस खेचर मलीयो वेगे वलि यो, रंक रुलीयो ते नरु ॥ मधुबिंदु चाटे विषय साटे को उपनय जगगुरु ॥ ३ ॥ ढाल ॥ चोराशी लख रे, गतिवासी कांतार रे ॥ मिथ्यामति रे, भूलो जमे संसार रे जरा मरणारे, अवतरणा ये कूप रे, ॥ आठ खाणी रे, पाणी पगइ सरुप रे ॥ त्रुटक ॥ आठ कर्म खाणी दोय जाणी, तिरिय निरय ज गरा ॥ चारे कषाया मोह माया, लंबकाया विषद रा ॥ दोय पक्ष जंदर मरण गयवर, त्र्यायुवमवाइ वटा ॥ चटका वियोगा रोगशोगा, जोग योगा सा मटा ॥ ४ ॥ ढाल || विधाधर रे, सदगुरु करे संजा ल रे ॥ तेणें धरीयुं रे, धर्म विमान विशाल रे || विषया रस रे, मीठो जेम महुयाल रे ॥ परुखावे रे, बाल यौवन वयकाल रे | त्रुटक ॥ रह्यो बाल यौवन काल तरुणी, चित्तहरणी निरखतो ॥ घरजा रत्तो पंक खुत्तो, मदवगुत्तो पोषतो ॥ आनंद श्र णी जैनवाणी, चित्त जाणी जागीयें ॥ चरण प्रमोद सुशिष्य जंपे, छाचल सुख एम मांगी यें ॥५॥ इति ॥ ॥ अथ वैराग्य सद्याय प्रारंभः ॥ ॥ श्रीसीमंधर साहेब सांजलो ॥ ए देशी ॥ ॥ कां नवि चिंतें हो चित्तमें जीवमा, श्रायु गले
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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