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________________ ४०२ जैनधर्मसिंधु व धनसार ॥ पुण्य विशेषे प्रत्यक्ष पाम्या, अलवेस र अवतार रे ॥ हों० ॥ ४ ॥ एवं जाणी रुडं पामी, करजो धर्म सखा ॥ साधु हर्ष कर जोकी विनवे, दीधुं लेशे लारे ॥हों ॥५॥इति होसीमा सद्याय॥ ॥अथ मधुबिंद्या दृष्टांत सद्याय प्रारंजः ॥ ॥ ढाल ॥ सरसती मुज रे, माता द्यो वरदान रे ॥ गौतम रे, लांख श्रीवर्षमान रे ॥ बंडो गिरु श्रा रे, विस्था विषयनु ध्यान रे ॥ विषयारस रे, बे मधुबिंदु समान रे ॥ त्रुटक ॥ मधुबिंछ सरिखो विषय निरखो, जापरखो, चित्त शुंगनर जनम हारयो मोह गारयो, पिंम नारयो पापशुं॥तार पमियो नाग नमियो, कोई देवाणुप्पिोयो ॥ वमवृक्ष जमियो वेगें चमीयो करडियो बप्पियो॥१॥ ढाल॥वम हेठल रे, कूप श्रबे असराल रे ॥ दोय अजगर रे,मगर जिश्या . विकराल रे ॥ चिहुं पासे रे, चार जुयंगम काल रे ॥ वली उपर रे, मोटो बे महुयाल रे ॥त्रुटक ॥ महुयाल माखी रगत चाखी, चंचु राखीने रही ॥ घंधोलतो गजराज धायो, पडत वमवार ग्रही ॥ वमवार कापे उंदर आपे, ताप संता ग्रह्यो ॥ मधु थकी गलीयो बिंड ढलीयो, तेणे सुखलीणो रह्यो ॥२॥ ढाल ॥ एह संकट रे, बोडण देव दयाल रे ॥ पुःख हरवा रे, विद्याधर ततकाल रे ॥ उकरवा रे, धरियुं तास विमान रे॥ो आवे रे, मधुबिंषु करे
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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