SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 434
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०० जैनधर्मसिंधु. श्रांबो मोरीयो, सामायिक थाणे मंत्र नवकार संजा रजो समकित सुधगंणे ॥ का० ॥३॥ वामी करो विरतां तणी, सवि लोन निवारो ॥ शील संयम दोनु एकगं, नली पेरे पारो ॥ का० ॥४॥ पांच पुरुष देशावरी, बेग एणी डाली ॥ फल चुंटीने चोरीश्रां, न करी रखवाली ॥ का० ॥५॥ श्ण वामी एक सूमलो, सुख पिंजर बेगे ॥ बहुत जतन करी राखजो, जातो किणही न दीगे ॥ का० ॥६॥ का जोलपणे जव हारियो, मती मोमी संजाली ॥ रत्न चिंता मणि सारीखी, कांश गांउ न वाली॥ ॥ का० ॥७॥ रत्न तिलक सेवक जणे, सुणेजो वनमाली ॥ वाम नली परें पालजो, करजो ढंग वाली ॥ का०॥॥ ॥अथ तेर काठीयानी सद्याय ॥ ॥श्रालस पहेलो जी काठियो, धर्मे ढील कराय रे, निवारोजी काठिया तेर दूरे करो ॥ बीजो ते मो ह पुत्र कलत्रशुं, रंगें रहे लपटाय रे ॥ निवारोजी ॥ का ॥१॥त्रीजो ते अवरण धर्ममां, बोले अव रण वादरे ॥ निवारोजी ॥ कण् ॥ चोथो ते दंलज काठियो, न लहे विनये सवाह रे ॥ निवारोजी ॥ ॥ का ॥२॥ क्रोध ते काठियो पांचमो, रीसें रहे अमलाय रे ॥ निवारोजी ॥ का ॥ बहां प्रमाद ते कग्यिो, व्यसने विगूतो थाय रे॥ निवारोजी ॥
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy