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________________ प्रथमपरिछेद. मणो श्व साव दवइ जम्हा ॥ एएण कारणे णं ॥ बहुसो सामाश्रं कुजा ॥२॥ सामायि क विधिं लीधुं विधिं पारिजं ॥ विधि करतां जे कोइ अविधि हुर्ड होय ते सवि हुं मन वचन कायाये करी॥ मिडामि उक्कडं ॥ इति ॥२॥ ॥१॥अथ जगचिंतामणि चैत्यवंदन ॥ ॥श्बाकारेण संदिसद नगवन् ॥ चैत्यवंद न करुं ॥ ॥जगचिंतामणि जगनाद ॥जग गुरु जगरकण ॥ जगबंधव जगसबवाद।जग नाव विप्ररकण ॥ अहावय संविध॥ रुव कम्महविणासण ॥चनवीसंपि जिणवर ॥जयं तु अप्पडिहयसासण ॥ ॥ कम्मनूमिहिं क म्मनूमिहिं॥पढम संघयणि ॥ जक्कोसय सत्त रिसय ॥ जिणवराण विहरंत लग्न ॥ नव को डिहिं केवलिण॥कोडि सहस्स नव साहु गम्म ॥ संपइ जिणवरवीसमुणि ॥ बिहुँ कोडिदिं वरनाणासमणद कोडि सदस अ॥थुणि जि अनिच्च विदाणिाशाजयन सामी जयन साम॥ रिसद सत्तुंजि ॥जजिंत पहु नेमिजिण ॥ जयन वीर सच्चरि मंमण ॥ जरुअबहिं मुणिसुबय॥
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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