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________________ चतुर्थपरिबेद. ३३५ यो, कारजएक मेरोनासरीयो, अब मैं तेरो दरशन पायो कुमति मोरी हटगईरे ॥ श्रा० ॥३॥ जबल ग मुक्तन आबे नेडे, तबग लक्तिवसौ उर मेरे, श्रात्म सुझ समकित धरके शिव रमणी वर लश्रे॥श्रान्॥इति पुनः (खाम्बाज) जिनंदकी मैं वारी बवि प्यारी, वारी जाजं वार हजारी ॥ जि०॥ वदन वि मांनुचंद शरदसी, मेटो अशुन अंधियारी ॥ जि० ॥१॥ निरख चकोरी ह रष नरानी, नैनन मङ्गल कारी ॥ जि ॥२॥ चुन्नी तृप्त होत दरसनसे, आसा पूरो हमारी॥ . पुनः एहाल अपना कहूं मैं कासे, सजन विना नर जर श्रावै बतिया ॥ ए० ॥ न ताव तनमें न चयन दिलको विरहका मारा वेहाल मतिया ॥ ऐ०॥ न कोई ऐसा हकीम देखू जो मेरे दिलको करार श्रावै, सखी खजनका खबर जो पाऊं, तो लिख लिख पगऊं पतिया ॥ ए ॥२॥ जल विन मीन क्योंकर जीवे,अरज इतना विचार देखो, एजीव जीवन पिया दरश विन, कटैगा कैसे अन्धेरी रतियां ॥ ए क पटके पट खोल आए सजन सखी गये मुख जन म जनम के । चुन्नी निरुपम दरसकै आगे कह मैं अव क्याअनुठी वतियां ॥ ए० ॥ इति ॥
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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