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________________ ३३४ जैनधर्मसिंधु. में हुँ ॥ दि॥ दया नाव धारो प्रनु चरणसे लगा लो खवर लोगे मेरा गुणेगार में हुं । दि० ॥ दरसवे गी दिजीये दया कर चुन्नीको, जगन्नाथ तुम हों, तावेदार में हुं ॥ दि॥ इति ॥ पुनः ध्यानमें जिनके सदा लयलीन होना चाहिये, झान गुरु ज्ञानीसे ले परवीन होना चाहिये ॥ राह सञ्जमका पका कल्यानकी सूरत मिले, काल गफलतमे सजन् , नाहक नखोना चाहिये ॥ ध्या० ॥ धर्मकी खेती किया चाहे जमीकुं साफ रख वीज समकितको हृदयमें सच्चेसे वोना चाहिये ॥ध्या०॥ कामना मनकी सफल श्रानन्दसे पूरन नई, अवतो समता सेजउपर सुखसे सोना चाहिये । दास चुन्नी अपने घर आंगनमे फूलेगा कलप । जव थिति प कनेसे मुक्ति फल सलोना चाहिये ॥ ध्या० ॥इति॥ पुनः (तुमरि) श्रीआदिनाथजीका देख दरश सुविधा मोरी मिट गईरे ॥ आज मुवि ॥आनंद आज जयो मेरो मन ॥सिव सुख चाहतहुं प्रज्नु हाथन ॥ जिन की मुर त चंदनसे तनमनसे लपट गरे ॥ श्राज मुवि० ॥१॥ अष्टप्रव्य ले पूजन आये वीतराग के दरशन पाए जिनवांनी कानोंसे सुनी फुरगत मोरी कट गरे ॥ श्रा० ॥२॥ काल अनादि मैं प्रज्जु फिरी
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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