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________________ ३३० जैनधर्मसिंधु. सेवककी प्रनु एहि अरज है । जब सङ्कटसे निवा रोरे ॥ ने० ३ ॥ इति पुनः सूरत एसी सांवरी। में जांज वारि । प्रजुजी एक अरज सुनो मोरी॥ टेर० ॥ समुद्र विजेजीके नन्दन प्रजुजी, सेवा देवी माता जिके नयननको न ये गुलजारी ॥ सु० १॥ राजुलको परनीजन आ ये । पशुयनको निरख रथ फेरके चले गये गिरनारी ॥ सु०॥ नव नव प्रीत बिनमें तो मी । नेम राजुल मिल हुवे जव मुगतिके अधिका री॥ सु० ३ ॥ दास आस कर अरज करतु है, मे हर मोहे कीजे दरस मोहे दीजे । चरनणकी में जांउ वलिहारी ॥ सु०४॥ इति पुनः सुमति जिन मुजरो हमारो प्रनु लीजेजी ॥ मेघ नृपति जीके नन्दन स्वामी मात सुमङ्गलाके प्यारो जी ॥ सु० १॥ पैसो नर नव पायके प्राणि । नित नित वन्दन किजेजी ॥ सु०॥ असे जिनजीको पूजत प्राणी । जव नव पातिक विजेजी ॥ सु०३॥ दास तुमारो करत वीनति अजर अमर पद दीजे जी ॥ सु० ४ इति पुनः हजूर तुमसे कहुं में दिलकी वेजार पनमें जो
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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