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________________ चतुर्थपरिवेद पुनः ( थियेटर ) मैं अरज करूं, सूनो महाराज | पायो में चरण सरण राखोने प्रभुजी लाज ॥ सु० १ ॥ सुमति जिनन्दा मेरे । सुरत सुहानी तेरे । कुमति न आवे नेडे, महिमां कहांला देखो, सफल घमी हे आज ॥ सु० २ ॥ वैशाख मास जो थाया । सदु लोग हरष पाया । रोग शोग दुख पुलाया । शुक्ल पक्ष देखो सोहे | पंचमी तिथि है आज ॥ सु० ३ ॥ नविन मंदिर बाजै । जहां प्रभुजी विराजे । मानुं शशि सूरज लाजे । चलो सखी सब मिलि । प्रभुजीकुं पुजुं श्राज ॥ सु० ४ ॥ इति । ३२ पुनः सुमति जिनन्दा प्रभु श्राज जुहारो । अष्टद्रव्य लेके श्राय ॥ पुजुं प्रभुजीके पाय । मनहिमें हरष ति योही मेरो ॥ सु० १ ॥ त्र्यायो मैं तुमारे पास । पुरो मेरी जिलाष । दीन बन्धु दिनानाथ जगत उजियारो | ना मिलेगो एसो दाव काज सुधारो ॥ सु० ॥ २ ॥ इति I पुन: ( तुमरि ) नेमि जिन तुमरो दरस लागे प्यारोरे । दरस देख मन आनन्द आवे । पातिक हर गयो सारोरे ॥ ने० १ ॥ मैं हुं दीन अनाथ प्रभुजी । नाथ गरिव नेवाज हो तुमहि । कृपा करी मोहे तारोरे ॥ ने०२ ॥
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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