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________________ ३१७ चतुर्थपरिछेद. पुनः न मेरी विनतमीऊर धारो। तुम तारण तिढुं स्वामी। मोहे जरोसो तीहारो ॥१॥ मोसे श्रा जगमें कोई।मैं देख्यो जग सारो ॥२॥ सुन तारण पतीत ऊधारण । जवसागरथी तारो॥३॥ जुल सेवककी चित्त न दीजे, अपनी और नीहारो ॥ प्र० ॥ इति पुनः नाथ नये वैरागी हमारे ॥ कासे जाय कहुँ मेरी सजनी । वीन अवगुन मोहे त्यागी॥ हमा० ॥ परवस तुती जांय पनी है तुहिं तुहिं रटणा लागी॥ ह ना लाल विनोदी ईह रुपको नीरखत । वीर ह व्यथा तन नागी॥हना ॥ इति पुन सीतलनाथनुं स्तवनतारिये मोदे शीतल स्वामी ॥ शीतल स्वामी अन्तर जांमी॥ यांकडी ॥ काल अनादि पुदगलके संग, नटकत जयो हुँ निकामी ॥तारि॥१॥एसो न रहियो कोई थानक, मरण विनाको अंतरजामी ॥२॥ ओर फीर सुक्षम वादर पुदगल ॥ पराबरत कीयो सीरनामी ॥ ३ ॥तारी अधम उधारण बिरुद तिहारो, कृपा करी तारो नव्यजानी । जानुं
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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