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________________ चतुर्थपरिजेद. ३१॥ याकुं पूजत अती सुख उपजत, सब जीवन सुख कंद ॥ ज०२॥ यातें हीतकर अरज करत है, ची रंजी रहो तेरानंद ॥ ७०३॥ इति पुनः मेरी लागी लगन, नेम प्यारेसे ॥ मे ॥ सुनरी सखीएक बात हमारी, कहीयो कन्त हमारे से ॥ मे० १॥ जोगन होकर सङ्ग चलुङ्गी, प्रीत त जुं जग सारेसे ॥ मे २॥ नाम लीयासें आनन्द उपजे, कीरत होत उर धारेसे ॥ मे ३॥ इति पुनः रात गई अब प्रात होन जयो, क्या सोवे जिया जागरे रा० ॥ दोय घमी तडको अब रहियो, ऊन धरममें लागरे ॥रा १॥ जिन वानी ऊर वीच धारले, और नरम सव त्यागरे ॥ रा०२॥ आन न्द सुगुरु बचन हित मानो, ए सुधा शिव मार्गरे॥ रा० ४ ॥ इति ॥ रागिणी जैरबी श्रादि जिनन्द, मेरो आदि जिनन्द । दरसन तेरो है सुखकन्द ॥ मे० १॥ तुम दरशन विन क ल न पमत है, बिन मै तो दीन हीन पकड्यो स रण ॥ मे०॥ दास तिहारो अरज करत है जि नजी अवतो बुमावो जवफन्द ॥ मे०३॥
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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