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________________ ३१७ जैनधर्मसिंधु. पुनः-ताल तेताल जगदीग तुं मेरा प्रजु प्यारावे, तेरी श्रांखियांदी मानुं अजब बनी है, सुन्दर श्याम दीदारावे ॥ जग १॥घमि पल ५ सुमरण तेरो, कवडं न दीलसें न्यारावे ॥ जग २॥ जो तुफ ध्याया तिन सुख पावा, दरशन ज्ञान आधारावे ॥ जगण्३॥इति॥ पुनः-ताल तेताला आज प्रत्तु तेरे चरण लाग, मिथ्यातनींद मै खोरे। दर्शन कर परशन मन मेरे, आनन्द चित अव होरे ॥ श्राज० १॥ तुम बिन देव अवर नही उजो, देखा त्रिजुवन जोरे ॥ आज ॥ दास तुमारो करत विनती, तुम विन मेरो न कोरे॥ आज ३॥ इति ॥ पुनःताल कवाली नेम जिनन्दजीसैं अांखमली; मोरी रैन दिवस नीत लग रहीरे ॥ने ॥१॥ पहले श्राय उन दोस्ती कीन्ही, ले पीछे बिटकाय दईरे ॥ ने ॥१॥ पसु यन पर प्रजु दया करीनै, शिव रमणीने वर लईरे ॥ ने० ३॥ केई नविक रसना कर दोस्ती, रत्न विम ल पद पाय लई रे ॥ ने० ४ ॥ इति ॥ पनः जगन नररी देखन दे मुखन चन्द, मोरा देवी माता श्रीधन धन, जायोडे झषन जिनन्द ॥७० १
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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